छत्तीसगढ़ राज्य वन सेवा परीक्षा के लिए जो विषय हैं उनमें से एक छत्तीसगढ़ का इतिहास है। और उसी इतिहास के
अतर्गत आता है बस्तर का इतिहास । इस परीक्षा की तैयारी के लिए दिए गए इतिहास के पन्नों को उलट कर देखा तो बस्तर के बारे मंे बड़ी दिलचस्प बातें नज़र आयीं। जो आपसे साझा कर रहा हूँ।
भारतीय इतिहास की तरह बस्तर का इतिहास भी तीन भागों में बंटा हुआ है । एक प्राचीन ,मध्य और आधुनिक । प्राचीन बस्तर में प्रगैतिहासिक साक्ष्य हैं तो वहीं मध्ययुगीन बस्तर के लिए शिलालेख और प्रशस्ति हैं जो उस वक्त के नामी राजाओं ने लिखे थे जानते हैं सिलसिलेवार बस्तर का इतिहास ।
जिस दौर में भारत के उत्तरी हिस्से में गजनवी, गुलाम ,खिलजी और लोदी वंशों का दौर था उस समय बस्तर में नागवंशीय और काकतीय वंशों ने अपना अधिपत्य जमा लिया था। वे उत्तरी भारत की हलचल से सम्भवतः अछूते थे।
इंद्रावती नदी के तट पर स्थित खड़कघाट,कालीपुर मेटवाड़ा, देउरगांव, गढ़चन्देला तथा नारंगी नदी के तट पर अनेक पाषाण युगीन अवशेष प्राप्त हुए हैं । अर्थात बस्तर विकास के सूत्र प्रगैतिहासिक काल से मिलते हैं।
ऐसे पड़ा दण्डकारण्य नाम
दण्डक जनपद का शासक इक्ष्वाकु का तीसरा बेटा दण्ड था। शुक्राचार्य राजा दण्ड के राजगुरू थे ।बाद में राजा दण्ड के नाम पर पूरे क्षेत्र को दण्डक जनपद और बाद में दण्डकारण्य कहा जाने लगा।
वाल्मिकी रामायण, महाभारत, वायु पुराण,मत्स्य पुराण , वामन पुराण के अनुसार शुक्राचार्य की अनुपस्थिति में राजा दण्ड ने उनकी कन्या अरजा से घर में घुस कर बलात्कार किया जिससे शुक्रचार्य ने क्रोधित होकर राजा दण्ड को ऐसा श्राप दिया कि पूरा वैभवषाली क्षेत्र भस्म हो गया और बाद में यह दण्डकारण्य में बदल गया। पहले इसे महाकान्तार भी कहते थे।
दण्डक जनपद की राजधानी कुंभावती थी जिसका उल्लेख रामायण में मधुमंत के नाम से किया गया है।
विस्तार
ऋषि मुनियों और असुरी ताकतों की भूमि
आदिवासी संस्कृति, जादू-टोने जैसा तांत्रिक तांत्रिक विश्वास, शैव परंपरा, आदि ऐसी बातें हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि यहाँ आसुरी शक्ति का वर्चस्व रहा होगा। मामा-भांजे के प्रगाढ़ सम्बन्ध रावण और मारीच के प्रगाढ़ सम्बन्धों को व्यक्त करते हैं। इसी तरह अबूझमाड़ में एक पुजारी -गाँव जहाँ प्रतिवर्ष पांडव एवं तीर-धनुष की पूजा होती है। नगरी सिहावा के क्षेत्र को श्रंग ऋषि और सप्त ऋषि की तपोभूमि थी। अगस्त मुनि आरण्यक में निवास करते थे। इससे यह सिद्ध होता है कि बस्तर ऋषि मुनियों की भी तपोभूमि थी।
मध्ययुगीन बस्तर
नल वंष
समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति की माने तो यहाँ राजा व्याग्रराज का संबध नल वंश से है। इस क्षेत्र में इस वंष के पांच अभिलेख मिले हैं
- भवदत्त वर्मा का ऋद्धिपुर ताम्रपत्र
- पोड़ागढ़ (जैपुर राज्य)
- अर्धपति का केेशरीबेढ़ ताम्रपत्र और
- पंडियापाथर लेख
- विलासतुग का लेख (राजिम)
इसके बाद वाकाटक पुनः संगठित हो गए और नलों से लोहा लिया । और पुष्करी को भी तहस-नहस कर गए। स्कंदवर्मा के बाद नल राजाआंे के बारे में कोई प्रमाणिक जानकारी नहीं मिलती । दुर्ग जिले के कुलिया नामक जगह से प्राप्त मुद्राभाण्ड से जानकारी ये मिलती है कि नंदनराज और स्तम्भ नामक दो राजा थे । संभवतः ये नल वंशीय राजा थे।
राजिम स्थित राजीव लोचन मंदिर विलासतुग ने बनवाया था। प्रस्तर अभिलेख से उसके शासन की अवधि (700 -740 ई )तक थी । राजिम अभिलेख के अध्ययनों से यह पता चलता है कि उसके पिता विरूपाक्ष और पितामह पृथ्वीराज थे ।
नाग वंश (1023 से लेकर 1324 )
नागवंषीयों को एक उपाधि मिलती थी जिसे भोगवती पुरवरेश्वर कहते थे। वे अपने आपको कश्यप गोत्र तथा छिंदक कुल का मानते थे। 1109 के शिलालेखों जो तेलुगु में है, इसके अध्ययन से सोमेष्वर देव और उसकी रानी का पता चलता है।
बस्तर में इस वंश की दो शाखाएं थी एक कमल-कदली पत्र और दूसरे को शावक संयुक्त व्याघ्र कहते थे। सम्भवतः एक शैव मतावलम्बी थे तो दूसरे वैष्णव थे।
एर्राकोट से प्राप्त शिलालेख (1023 ई. )की माने तो छिंदक नागवंष के प्रथम शासक का नाम नृपतिभूषण था।
धारावर्ष
मधुरांतकदेव
सोमेश्वर देव
कलचुरी के राजा जाजल्लदेव प्रथम ने सोमेश्वर देव को पराजित किया था और उसके राज महिषी एवं मंत्री को बंदी बना लिया परन्तु सोमेश्वर की माता गुंडमहादेवी के निवेदन पर उसे मुक्त कर दिया। सोमेश्वर के अभिलेख जो 1069 से 1079 के बीच जारी हुए थे ।
इतिहासकारों के अनुसार सोमेश्वर की मृत्यु 1079 से 1111 ई. के बीच हुई होगी। सोमेश्वर की माता गुंडमहादेवी के नारायणपाल से प्राप्त शिलालेख से ज्ञात होता है कि सोमेश्वर के पुत्र का नाम कन्हरदेव था। कन्हरदेव के शासन के बारे में कुरूसपाल और राजपुर के ताम्राभिलेख से भी पता चलता है ।
राजभूषण अथवा सोमेश्वर द्वितीय
जगदेव भूषण नरसिंहदेव
इसके बाद छिंदक नागवंश का कोई क्रमबद्ध इतिहास नहीं मिलता जिसे प्रमाणित किया जा सके। फिर सोनारपाल से प्राप्त एक शिलालेख में राजा जैयसिंह देव का उल्लेख मिलता है मगर इस शिलालेख में सन नहीं दर्शाया गया है। तो इसे यह कह पाना मुश्किल है कि यह नागवंशीय है या नहीं । टेमरा से प्राप्त एक शिलालेख सन 1324 ई की है जिसमें चक्रकोट के राजा हरिश्चंद्र का उल्लेख है। इसके पश्चात नागवंशीय राजाओं का कोई एतिहासिक साक्ष्य नहीं मिलता है। जो जानकारियां मिलती है वे किवदंतियों पर आधारित है जिसमें यह कहा जाता है कि हरिश्चंद्र ने चालुक्यों (काकतियों ) हराकर चक्रकोट पर अपना अधिकार कर लिया है।
अतः नागवंश के अंतिम शासक के तौर पर हरिश्चंद्र को ही स्वीकार किया गया है। शिलालेखों के अनुसार उनका कार्यकाल 1324 तक ही था। इसके बाद काकतियों की ताकत बड़ी और वे 1324 के बाद इंद्रावती के उत्तरी क्षेत्र को अपने अधिकार में ले लिया । और मधोता को अपनी राजधानी बनाया । उसके अवशेष आज भी मधोता में देखने को मिलते हैं । इसके बाद बस्तर में नागवंशीयों के बाद काकतिय वंश ने शासन किया ।